रिश्ता ना मिटाओ मिटा दो
मुझको
बहे आँखों से क्यों तब अक्श-ए -लहू ?
कह जाए वो जब भुला दो
मुझको ?
आते-जाते रहो दर्द बढ़ाने के लिए
कौन कहता हैं के दबा दो मुझको
हूँ मुसाफिर इक रोज तो चला जाऊंगा
दो इक रोज लिए ही पनाह दो मुझको
ऐ समंदर तू अब के 'साहिल' से भी मिल
तब तुम्हे मानुगा जो डूबा दो मुझको
© शिव कुमार साहिल ©
4 टिप्पणियां:
bakbaas hoti hein shayari
बहुत खूब साहिल जी ...
हूँ मुसाफिर इक रोज तो चला जाऊंगा
दो इक रोज लिए ही पनाह दो मुझको ..
लाजवाब शेर ही इस खूबसूरत गज़ल का ... बहुत दिनों बाद आना हुवा है आपका ये गज़ल ले के ...
सबसे ज़रूरी होता है ग़ज़ल का अनुशासन. मुझे अफ़सोस यह है कि तुम ने अब तक ग़ज़ल सीखने का कोई सार्थक प्रयास नहीं किया.
अभी वक्त है, सीखने की कोई उम्र नहीं होती और सीखने में समय भी नहीं लगता. मुझे ही देख लो वक्त नहीं लगा.
मुझे दुःख है मैं तुम्हारी तारीफ नहीं कर सका.
सच्च
एक टिप्पणी भेजें