दिल

मेरे दिल की जगह कोई खिलौना रख दिया जाए ,
वो दिल से खेलते रहते हैं , दर्द होता है "

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

नशे का शोंक नहीं

नशे का शोंक नहीं जो इतनी हम पीते हैं ,
इस मय के सहारे से बस , जी लेते हैं

दिल की बातो को छुपाना अपनी फितरत नही
वो राजदार और होंगें जो लबों को सीते हैं

वेसे मर चुके हैं सब शहर में अपनी अपनी नजरों में
तो ग़लत क्या हैं गर हम भी मुर्दों में जीते हैं

उन्हें तो शायद इल्म भी नही के सालों गुजर गए
यहाँ तो लम्हें भी गिन गिन के बीते हैं

कहानी बताता हैं कोई अपनी उस चोराहे पर यहाँ
घर तबाह कर के हमारा उन्होंने यहाँ घर ख़रीदे हैं

जरा देखो मेरे रकीबो के चेहरों की खुशी
ठोकर लगकर गिरा हूँ वो कहते हैं के हम जीते हैं

कोई न बचानें बाला "साहिल" को बुरी आदतों से,
इसलिए रिन्दों में बैठकर भी पी लेते हैं

नशे का शोंक नहीं जो इतनी हम पीते हैं ,
इस मय के सहारे से बस , जी लेते हैं !

इक गुलाब

किताबों के पन्नों में , हैं सुखा इक गुलाब
दिल के कोने में , उबलता इक सेलाब
चुप होने का सबब कुछ और हैं
बेजुबान न समझना हमको जनाब
भटकती याद नें तेरी गलिओं में सर झुकाया जो कभी
खुदा के लिए क़बूल कर लेना आदाब
टूटे हुए आईने के लिए क्या अपशगुन
आगे से लगा लेना चाहे पीछे से आवाज

दिल की बात करते हैं कसाई भी हक से
अब तो बुचखाने में भी बिकते हैं जस्बात

फर्क जमीं आसमा का था फिर काहे का गम
सूरज के आगे भला अदने से सितारे की क्या ओकात
किताबों के पन्नों में , हैं सुखा इक गुलाब
दिल के कोने में , उबलता इक सेलाब
चुप होने का सबब कुछ और हैं
बेजुबान न समझना हमको जनाब !!

भूख

मेरी रचना गिरिराज साप्ताहिक के २०-२६-मई अंक में छपी , जो हिमाचल सरकार दोआरा पर्काशित होती हैं , पड़कर बहुत अछा लगा ! रचना आपके सामनें प्रस्तुत कर रहां हूँ .....


यूँ आज तक बस मांगकर खाता रहा जो मिला
भूख हैं कम्बखत कभी कम न हुई
बद सें बतहर थी ये टुकडों की जिन्दगी
गली के कुते की तरह
मगर जीने की चाह कभी कम न हुई ,
स्कूल को जाते उन बच्चों की तरह
में भी करता था जिदद के नहीं जायूँगा
जब मांगनें की पढाई थी इन गलिओं में शुरू हुई ,
रंग बिरंगे रंगों में मैं मटमैला यूंही पड़ा रहा
मगर मुलाकात न कभी अपने से हें हुई ,
फ़ेंक कर सिक्के चले जाते थे गुजरनें बाले
अपनी तो पहचान बस भिखारी नाम से हुई ,
यूँ आज तक बस मांगकर खाता रहा जो मिला
भूख हैं कम्बखत कभी कम न हुई
बद सें बतहर थी ये टुकडों की जिन्दगी
गली के कुते की तरह
मगर जीने की चाह कभी कम न हुई !


००००००० साहिल ०००००००

जीने न दिया !!!

कभी भी जीने न दिया इन खाबों खयालों ने
कभी आराम न मिला इन दवाखानों में
किसी की तलाश में मंजिल न मिली लेकिन
इक बिस्तर मिला हमें इन पागलखानों में

कहतें हैं के पिने गया था मगर
दर्द कम करनें गया था मह्कश उन मह्खानो में


उन्होनें फेंक कर कहा तस्वीर घर से बाहर
कंही का ना छोड़ा इन दोस्तानो नें

शहर दर शहर भटकना ही पड़ा क्यों की
हम ही रह न पाए इन नए ज़मानों मे

कोई तो निकला था खोजने तुमको भी ' साहिल '
कोन लोटा हैं मगर उन तहखानों से !


००००० साहिल ०००००

बहुत कुछ याद आता हैं !!!

मुझे अपना न कहे कोई बहुत कुछ याद आता हैं
फूलों के बिस्तर हों चाहे कोई कांटा चुभ ही जाता हैं
जितना तुम चलो उस और किनारा दूर जाता हैं
मुझे अपना न कहे कोई बहुत कुछ याद आता हैं

रहना अपना भी अन्देरों में शोंक नहीं, ऐ मालिक
मगर दुश्मनों की भीड़ों से नजर महफूज आता हैं

सम्बालोँ न मुझे बाँहों, अगर मैकदे से में निकला
इसी कफस में अब जीना हमें भी पसंद आता हैं

बड़े चर्चें हैं रिन्दों में, मेरे पिने के अंदाज़ के
बिना पैमानों के पीना बड़ा ही सबको भाता हैं

कोई आया हैं बाहर , इस बहम में हम निकले
पागलखानों में मिलने को कोई पागल ही आता हैं

हो सके तुम न जाना जहन में आकर, अब यादो
किसी का छोड़ जाना भी ता उमर सताता हैं

बड़ा ही मुश्किल हैं 'साहिल' ग़म को छुपा कर भी रखना
महफ़िल में रहो या फिर तनहा, नजर हर तरफ ये आता हैं !


.......... साहिल .........

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

हाल -ऐ -दिल हमसे कहा न गया
बेजुबानो की तरह भी रहा न गया
इक धरिया जो बहता था जहन में मेरे
परदे में उससे भी रहा न गया
खामोशी तड़फ के बोली दिल से
ऐ साहिल मेरा बजूद भी तुमसे सहा ना गया
इक उमीद थी आंखों को तेरे आने की जालिम
रहगुजर से भी तेरी तरह ठहरा ना गया