मुझे अपना न कहे कोई बहुत कुछ याद आता हैं
फूलों के बिस्तर हों चाहे कोई कांटा चुभ ही जाता हैं
जितना तुम चलो उस और किनारा दूर जाता हैं
मुझे अपना न कहे कोई बहुत कुछ याद आता हैं
रहना अपना भी अन्देरों में शोंक नहीं, ऐ मालिक
मगर दुश्मनों की भीड़ों से नजर महफूज आता हैं
सम्बालोँ न मुझे बाँहों, अगर मैकदे से में निकला
इसी कफस में अब जीना हमें भी पसंद आता हैं
बड़े चर्चें हैं रिन्दों में, मेरे पिने के अंदाज़ के
बिना पैमानों के पीना बड़ा ही सबको भाता हैं
कोई आया हैं बाहर , इस बहम में हम निकले
पागलखानों में मिलने को कोई पागल ही आता हैं
हो सके तुम न जाना जहन में आकर, अब यादो
किसी का छोड़ जाना भी ता उमर सताता हैं
बड़ा ही मुश्किल हैं 'साहिल' ग़म को छुपा कर भी रखना
महफ़िल में रहो या फिर तनहा, नजर हर तरफ ये आता हैं !
.......... साहिल .........
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