दिल

मेरे दिल की जगह कोई खिलौना रख दिया जाए ,
वो दिल से खेलते रहते हैं , दर्द होता है "

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

आदमी !!


चूल्हे ठण्डे और दरवाजों पर लगे जाले हैं
आदमी
ने भूख की खातिर आदमी काट डाले हैं

कूड़े
-कर्कट से खाकर , लाखों फुटपाथ पर सोते हैं
और सरकारें कहती हैं कि हमने हालात बदल डाले हैं

पूजा करते थे जो हाथ , तेरी मूर्त को कभी
उन्ही
हाथों ने या खुदा तेरे टुकड़े कर डाले हैं

औरतें
- औरतों से खुश , मर्द - मर्दों से
नए
कानूनों ने भी संस्कार बदल डाले हैं

जब
दे ना पाए इज्जत से दो वक्त कि रोटी
उसे
चंद एक हरामियों ने औरत के अंग बेच डाले हैं

कुर्सी
, सता , दौलत के नशे में डूबे नेतायों ने
इतिहास
से पुछो, कितने पाकिस्तान बना डाले हैं



© शिव कुमार 'साहिल' ©


शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

इक छोटी सी बात !

इक छोटी सी बात कहानी हो गई
छत अधूरी थी की रात तूफानी हो गई


दिल को छुने गयी थी निगाह लेकिन
रस्ते में ही कम्बखत जिस्मानी हो गयी


मै ही बचा ता अब तक ख़ुद से
ख़ुद से भी आज इक बेईमानी हो गई


झूठ , फरेब ,अधर्म का दौर हैं
धर्म , ईमान की बात बड़ी पुरानी हो गई


© शिव कुमार 'साहिल' ©

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

आख़िर कब तक ............. ?


सढ रहा हूँ यूँ ही मै ,
पड़ा
हुआ हूँ बीचो-बिच

गले
-ढे
प्रशासन का हिस्सा बनकर ,
हिस्सेदार
बनकर
भ्रष्ट
नीतियों , बईमान नेतायों ,
अन्धे
कानून , अत्याचारी सतायों का
निशाना
बनकर या ख़ुद निशानेबाज़ बनकर
बस
पड़ा हुआ हूँ
बीचो-बिच
गले ढे प्रशासन का हिस्सा बनकर ,
हिस्सेदार बनकर
इस आस के साथ कभी
उठ
भी जाता हूँ सुबह-सुबह
के कोई चमत्कार हो ही जाएगा ,
के
फ़िर से कोई राम,
कोई
कृषण , कोई विष्णु का अवतार ,
ही जाएगा
सृष्टि
के कल्याण के लिए ,
भारत
के कल्याण के लिए
दुष्टों
के समूल नाश के लिए
तब
तक शायद
मै बेठा रहूँगा
यूँ
नामर्दों की तरह इक नामर्द बनकर
जुबान होते हुए भी बेजुबान ,
सब
देख कर भी अनदेख , अनजान
कानो
पर हाथ रख कर बेठा हूँ
आपने
घर में दुबक कर
शायद
बापू के तीन बंदरों का
विपरीत
अर्थ समझाया गया होगा मुझे
के
अत्याचार होने पर भी इक शव्द तक बोलना
अत्याचारी
को देखते ही आंख बंद कर लेना
कभी
किसी बालात्कार का शिकार
और
फ़िर आग में जल रही
अभ्ला
की आवाज कान में पड़ भी गयी
तो
दोनों कानो पर हाथ रख लेना
हाँ
शायद कुछ ऐसा ही अर्थ समझाया गया होगा मुझे
जो
अब में समझा रहां हूँ ख़ुद के बाद
अपने
बच्चों को बुदिमान बनकर
इस नए जमाने का हिस्सा बनकर ,
हिस्सेदार
बनकर
शायद
कुछ परिभाषायों के अर्थ अधूरे हैं अभी
शायद
कुछ और बलिदानों की जरुरत हैं अभी
ये
अमेरिका , स्वित्ज़रलैंड , इग्लैंड
ये विदेशों
से लिया संबिधान अधुरा हैं अभी
अपने देश के
वेद , उपनिषदों, ग्रंथों को
भी
पड़ने
की जरुरत हैं अभी
ख़ुद
की सोच को बदलने की
जरूरत
हैं अभी
आख़िर
कब तक चूडियाँ डाले
बेठा
रहूँगा
मै बुझदिल बनकर
गले
-ढे प्रशासन का हिस्सा बनकर ,
हिस्सेदार
बनकर
अपना अपराधी बनकर ,
अपनी
बरबादियों का जिमेदार बनकर
,
आख़िर कब तक ............. ?

© शिव कुमार साहिल ©



बुधवार, 2 दिसंबर 2009

तेरा क्या ख्याल हैं !!

महबूब को चाँद कहते हो कभी खुदा बताते हो
बुढे माँ - बाप के बारे में तेरा क्या ख्याल हैं


तेरे गिरते हुए कदमो को जिन्होंने चलना सिखाया था
आज वो गिर रहे हैं तो तेरा क्या ख्याल हैं

कभी माँ की लोरी सुनकर ही तुझे नींद आती थी

रात को माँ खांस रही हैं तो तेरा क्या ख्याल हैं


निगाहे- नाज़ की तारीफ तो कभी हुस्न को सजदे
टूटे हुए बाप के चश्मे पर तेरा क्या ख्याल हैं

किसी अन्जान के लिए पल में मरने की कसमे

तुझे जन्म देने वालों के लिए तेरा क्या ख्याल हैं

तू भी चुलू भर पानी में जा डूब मर " साहिल "

या सोच की माँ-बाप लिए तेरा क्या ख्याल हैं !!



© शिव कुमार 'साहिल' ©

नया अंदाज़ !!


अब के जंहा का हर अंदाज़ नया हो रहा हैं
इन्सां बाँट रहा तकदीरे, खुदा खाली हाथ रो रहा हैं


नींद से जाग चुके हैं हजारों कुम्भकरण
राम न जाने सेनायों संग कंहा सो रहा हैं


सत्य , अहिंसा, न्याय, धर्म जल रहें हैं बारी बारी ,
सम्मान झूठ , छल- कपट का हर दर पर हो रहा हैं


पहले पाप धोने के लिए जाते थे गंगा में नहाने
अब जिसके पानी से आदम खून लगा खंजर धो रहा हैं


सलाम तेरी तरक्की को , ऐ तरक्की पसंद इन्सां
अब तो पेट से बाहर आते ही तू जबां हो रहा हैं !!

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

दर्द की आग !!


दर्द की आग हैं शहर में चारों तरफ
कोई जल रहा हैं कोई जला रहा हैं

मेरे माजी का सहारा था मुझको
वो भी डूबने के लिए जा रहा हैं

इन दिनों शोर-शराबे हैं, बुतखानो में
खुदा बनके इक खुदा पश्ता रहा हैं

वो भी हो गया शायद अपने दर्द से वाकिफ
जो देखने पर ही इतना मुस्कुरा रहा हैं

जब ख़ुद ही हो वजह अपनी बरबादियों की
फ़िर क्यों किस्मत से गिला जता रहा हैं

जिसको पहचाने न कोई शहर में 'साहिल'
वो ही चोराहे पे सबका पता बता रहा हैं


© शिव कुमार 'साहिल' ©

इक खुदकुशी !!


रिश्तों के किसी सूखे पेड़ से
गिरते गए , टूटते गए
रिश्तों के सूखे फुल कोम्प्लें और पत्तें
बे सहारा माँ बाप कंही
कंही रोते बिलकते लावारिस बच्चे
कदम जलते गए
जिधेर गए
बेशक फूंक-फूंक कर थे रखे
कुछ ऐसा हुआ के वो
रिश्तों का पेड़ टूट ही गया
कुछ ऐसा हुआ के रिश्तों से
कोई रिश्ता सदा के लिए
रूठ ही गया
कुछ ऐसा ही हुआ था उस दिन
कुछ ऐसा ही हुआ होगा
कोई खाव फंदे पर लटक गया
किसी मज़बूरी का मुंह उगल रहा था
वो खास तरह का झाग
कोई चाहत लगाये बेठी थी
खुद को मिटाने को आग
कोई पानी के निचे गिन रहा था
साँस के चंद आखिरी बुलबुले
कुछ ऐसा ही हुआ था उस दिन
कुछ ऐसा ही हुआ होगा
और फिर हुई थी उस दिन
मज़बूरी में ,
तकलीफों में ,
बे सहारा पन में ,
ख़ुशी से
इक खुदखुशी
हाँ हुई थी उस दिन खुदखुशी
इक खुदकुशी !!

रविवार, 27 सितंबर 2009


अभी हाल ही में मेरी पहली पुस्तक "फासलें और भी हैं" जोकि एक ग़ज़ल संग्रह हैं भी छपी हैं ! यह किताब सम्पूर्ण रूप से उस प्यार को समर्पित हैं जो अधुरा रह गया हैं ! एहसास जब अश्यारोँ में बयां होते हैं तो उन एहसासों की एक अलग दुनिया , एक अलग चेहरा , एक अलग सन्देश सामने आता हैं ! इस किताब में आपको कुछ ऐसे ही सन्देश गज़लों की शक्ल में मिलेंगे ! ग़ज़ल इक सुन्दर एहसास हैं इसमें शिकायत , प्रेम , निराशा , खुशी , दर्द , यादें और जिन्दगी का हर रंग मिल जाता हैं ! इस किताब में मेनें इन्ही रंगों के उपर लिखने की कोशिश की हैं ! यह मेरी पहली किताब हैं और लाजमी हैं की इसमें कमिया भी होंगी इसलिए आप मेरी किताब को जरूर पढें और अपनें अमूल्य विचार मुझे बेजे ताकि मैं अपनी कमिओं के बारे में जान सकूँ और सुधार भी कर सकूँ !

( तेरे दर से ऐ मालिक )

तेरे दर से मालिक कही और चलते हैं
तुझे देखा खुदा कह कर अब खुदा बदलते हैं


वो कहता खो गयी चाबी लगा महखाने पे ताला
ताले तो टूट जाते हैं चलो होंसला तो करते हैं


हैं जीना तो बड़ा मुश्किल हैं आदम कांच का टुकडा
बहुत हैं टूट कर बिखरे जरा संभल के चलते हैं


अभी तो होश आया हैं जाने को मैकदे से कहना
पहले खुद को तो मैं समझू ओरो को फिर समझते हैं


अब इतनी सोच केसी हैं, अब हैं केसी ये उलझन
बेशक यादों से निकलूं मगर अब याद बदलते हैं


जमाना कब का हैं बदला मगर " साहिल " तो वेसा हैं
ठहरे ना ठहरा पानी भी, हम भी अब आदत बदलते हैं !