ठण्डे पड़ चुके
एहसासों कि
कडकडाती ठण्ड में
कहीं कोई एहसास
जम गया
विरह की बर्फ से
याद का घर और आँगन
सफ़ेद चादर में
बदल गया
उम्मीद के बिखरे हुए
छोटे-छोटे
साँस लेते हुए टुकड़े
परत दर परत
जमते रहे , दबते रहे
हवा में तेरती हुई,
फरियादें
अपनों को तलाशती,
आवाजें
यहाँ तक पहुँच पाई थी
वंही ठहर गई
वंही जम गई
इस सर्द ख़ामोशी में
न रुकने वाला वकत भी
कंही रुक कर
यह मंजर देखने की
कोशिश में था
फिर हुआ यूँ के
दूर बहुत दूर
कहीं किसी दूसरी जगह
कोई दूसरा एहसास
आखिर दहक उठा
और उस एहसास की
आँख का गर्म अश्क
तपती हुई किरण बनके
जमी हुई
विरह की बर्फ
पिघला गया
और फिर पिघलती
बर्फ से बनी
मिलन की नदी में
तेरता हुआ इक उम्मीद का
जिंदा बचा आखरी टुकड़ा
हवाओं में फिर से तेर रही
फरियादों और आवाजों के
साथ निकल पड़ा
उसी तरफ
यहाँ से इस जमी हुई
विरह की बर्फ को
पिघलाने वो अक्श
आया था
यह मुमकिन हैं
कि यह दो एहसास
कभी एक न भी हो पाएं
पर इतना तो तय हैं
कि अब दोबारा ये
एहसास फिर कभी जमेंगे नहीं !!
© शिव कुमार साहिल ©
3 टिप्पणियां:
यह मुमकिन हैं कि यह दो एहसास कभी एक न भी हो पाएं पर इतना तो तय हैं कि अब दोबारा ये एहसास फिर कभी जमेंगे नहीं !!
अच्छी कविता है....बधाई
Behtrin Kavita !!
bhai sahil kalam ke liye mubaraqbad aakharkalash par maire gazalon par aapke comments ke intazar me- mohd.irshad
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