दिल

मेरे दिल की जगह कोई खिलौना रख दिया जाए ,
वो दिल से खेलते रहते हैं , दर्द होता है "

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

आख़िर कब तक ............. ?


सढ रहा हूँ यूँ ही मै ,
पड़ा
हुआ हूँ बीचो-बिच

गले
-ढे
प्रशासन का हिस्सा बनकर ,
हिस्सेदार
बनकर
भ्रष्ट
नीतियों , बईमान नेतायों ,
अन्धे
कानून , अत्याचारी सतायों का
निशाना
बनकर या ख़ुद निशानेबाज़ बनकर
बस
पड़ा हुआ हूँ
बीचो-बिच
गले ढे प्रशासन का हिस्सा बनकर ,
हिस्सेदार बनकर
इस आस के साथ कभी
उठ
भी जाता हूँ सुबह-सुबह
के कोई चमत्कार हो ही जाएगा ,
के
फ़िर से कोई राम,
कोई
कृषण , कोई विष्णु का अवतार ,
ही जाएगा
सृष्टि
के कल्याण के लिए ,
भारत
के कल्याण के लिए
दुष्टों
के समूल नाश के लिए
तब
तक शायद
मै बेठा रहूँगा
यूँ
नामर्दों की तरह इक नामर्द बनकर
जुबान होते हुए भी बेजुबान ,
सब
देख कर भी अनदेख , अनजान
कानो
पर हाथ रख कर बेठा हूँ
आपने
घर में दुबक कर
शायद
बापू के तीन बंदरों का
विपरीत
अर्थ समझाया गया होगा मुझे
के
अत्याचार होने पर भी इक शव्द तक बोलना
अत्याचारी
को देखते ही आंख बंद कर लेना
कभी
किसी बालात्कार का शिकार
और
फ़िर आग में जल रही
अभ्ला
की आवाज कान में पड़ भी गयी
तो
दोनों कानो पर हाथ रख लेना
हाँ
शायद कुछ ऐसा ही अर्थ समझाया गया होगा मुझे
जो
अब में समझा रहां हूँ ख़ुद के बाद
अपने
बच्चों को बुदिमान बनकर
इस नए जमाने का हिस्सा बनकर ,
हिस्सेदार
बनकर
शायद
कुछ परिभाषायों के अर्थ अधूरे हैं अभी
शायद
कुछ और बलिदानों की जरुरत हैं अभी
ये
अमेरिका , स्वित्ज़रलैंड , इग्लैंड
ये विदेशों
से लिया संबिधान अधुरा हैं अभी
अपने देश के
वेद , उपनिषदों, ग्रंथों को
भी
पड़ने
की जरुरत हैं अभी
ख़ुद
की सोच को बदलने की
जरूरत
हैं अभी
आख़िर
कब तक चूडियाँ डाले
बेठा
रहूँगा
मै बुझदिल बनकर
गले
-ढे प्रशासन का हिस्सा बनकर ,
हिस्सेदार
बनकर
अपना अपराधी बनकर ,
अपनी
बरबादियों का जिमेदार बनकर
,
आख़िर कब तक ............. ?

© शिव कुमार साहिल ©



2 टिप्‍पणियां:

सर्वत एम० ने कहा…

कविता का विषय बहुत-बहुत अच्छा है. संवैधानिक व्यवस्था से असंतुष्ट नागरिक, विशेषकर युवा पीढी का स्वर यही होना चाहिए. कविता को एडिटिंग की आवश्यकता है. इसे तराश करथोड़ा छोटा कर सको तो बेहद उत्कृष्ट रचना हो सकती है. वर्तनी (स्पेलिंग) की अशुद्धियाँ कुछ ज्यादा हैं, आप शायद उत्साह में जल्दबाजी कर रहे हैं. पंक्तियों के बार-बार दुहराव से भी ऊब महसूस होती है. आपने पिछले ६ महीनों में निस्संदेह प्रगति की है. मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

देखा साहिल भाई. सर्वत साहब ने जो कहा, वही कहने आया था.
और हां, ग़ज़लों को बहर में लाने के लिये उस्ताद की मदद लेने से भी गुरेज मत करना
बाकी कविता या शायरी के लिये जो भावना होनी चाहियें, वो आपके पास माशा अल्लाह नज़र आ रही हैं.
बस सही सांचे में ढालने की जरूरत है..
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद